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अनुरोध – एक गध-काव्य – तुमको समर्पित

सीधा, सरल जो मन मेरे घटा
सीधा, सरल जो मन मेरे घटा
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मेरी कविताओं में
यदि स्वयं को पा जाओ
तो रुष्ट मत होना,
मेरी मंशा
अपनी कविताओं में
तुम्हारा नाम लिखने की
कटाई न थी,
पर शायद,
मेरी लेखनी
मेरे नियंत्रण में नहीं थी;
या शायद
मेरी लेखनी के तार
जुड़े हैं भीतर कहीं,
मेरे गहरे अंतर्मन से,
जहाँ पर तुम रहते हो
मौजूद हर वक़्त,
एक ख्याल बनकर;
शायद
यह चोर लेखनी
वहीँ से चुरा लाती है
तुम्हारा अक्स, तुम्हारा नाम,
और फिर
यह मुँहजोर लेखनी
कागज़ के कोरे सीने पर
तुम्हारा जिक्र
उकेर कर रख देती है .

मैंने अपने अंतर्मन को
समझाने बहुत चेष्टा की,
कि
मैं जब कविता लिखूं,
उस समय
तुम्हारा विचार न लाये;
पर,
वो भी बेचारा
क्या करे?
कविता का ख्याल आते ही,
उसे सबसे पहले
तुम्हारा विचार आता है;
या शायद,
मेरा अंतर्मन
मुझसे अधिक
मेरी लेखनी के,
नहीं, शायद
तुम्हारे वश में है.

शायद
तुम न होते,
तो मेरा अंतर्मन अचेतन होता,
और मेरी लेखनी से
इन कविताओं का प्रवाह हा होता,
ये मेरी कविताएँ हा होतीं;
जरा तुम सोचो.

इसलिए,
जब तक तुम हो,
मेरा अंतर्मन जीवित हैं,
मेरी लेखनी सजीव है,
मेरी कविताएँ हैं.

इसलिए
मेरे अंतर्मन के
जीवित रहने के लिए
मेरी प्रेरणा बनी रहो,
इसी तरह
मेरी कविताओं में
अलंकर बनकर
सजी रहो;
ताकि
मैं कल्पना के धरातल से
यथार्थ के धरातल पर
न आ गिरूँ,
इसलिए
मेरा अनुरोध है, कि
मेरी कविताओं में,
अपना नाम रहने दो,
और
मेरी लेखनी से यूं ही
कविताओं का निर्झर
बहने दो.

दीपक कुमार श्रीवास्तव

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